कहानी: “कार की खामोशी”
(एक सच्ची घटना पर आधारित त्रासदी की थ्रिलर-कथा)
Panchkula-news-2025-05- Sucide Car Story
पंचकूला की एक सामान्य-सी शाम… लेकिन आसमान कुछ ज्यादा ही सुस्त था।
27 मई 2025, हरियाणा का पंचकूला शहर जैसे रोज़ की तरह धीरे-धीरे थकान उतार रहा था। सेक्टर 27 की शांत गलियों में एक हुंडई ऑरा कार घंटों से एक ही जगह पर खड़ी थी। पहले किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर किसी ने गौर किया — इतनी देर से रुकी हुई कार, बंद शीशे, और कोई हलचल नहीं।
एक गहरी खामोशी उस कार के भीतर छिपे रहस्य को दबा रही थी।
रात करीब 10 बजे, मोहल्ले के निवासी पुनीत राणा को कुछ अजीब महसूस हुआ। उन्होंने कार के पास जाकर झाँका — और उनके रोंगटे खड़े हो गए। भीतर छह लोग अचेत पड़े थे। लेकिन ड्राइवर सीट पर बैठा एक शख्स — उल्टी कर रहा था… ज़िंदा था… मगर बुरी हालत में।
पुनीत ने दरवाज़ा खोला। उस व्यक्ति ने कांपती आवाज़ में कहा,
“पांच मिनट में मैं भी मर जाऊंगा…”
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“क्यों?” — पुनीत चौंक गए।
“हमने ज़हर खा लिया है… मैं कर्ज़ में डूब गया हूं… सब खत्म हो चुका है…”
उसने थरथराती उंगलियों से बोतल और कुछ खाने के पैकेट्स की ओर इशारा किया।
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अंधेरे में उजागर होता एक पारिवारिक रहस्य…
पुनीत ने उसे खींचकर बाहर निकाला। मोहल्ले के कुछ लोग जुटे, पानी पिलाया गया। पुलिस को फोन हुआ — वो तो जल्दी आ गई, लेकिन एम्बुलेंस… 40 मिनट देरी से आई।
जब अस्पताल पहुंचे — तब तक छह लोग मर चुके थे। सातवें ने भी कुछ देर बाद दम तोड़ दिया।
कौन थे ये लोग? क्यों चुनी एक साथ मौत की राह?
जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, परतें खुलने लगीं। मृतक का नाम था — प्रवीण मित्तल। 42 साल का, हिसार का रहने वाला, कभी कारोबारी था… आज टैक्सी ड्राइवर। पत्नी रीना, माता-पिता, बेटा हार्दिक और जुड़वां बेटियाँ — सभी उसकी उस अंतिम यात्रा के साथी बने थे।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में DCP अमित दहिया ने बताया,
“कार से सुसाइड नोट मिला है। मामला आत्महत्या का लगता है। जांच के लिए पाँच टीमें लगाई गई हैं।”
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20 करोड़ का कर्ज़ — और एक टूटता हुआ मन…
प्रवीण की कहानी में संघर्ष की परछाइयाँ बहुत पुरानी थीं। देहरादून और पंचकूला के बीच उसके जीवन की गाड़ी हिचकोले खा रही थी। हिमाचल में स्क्रैप फैक्ट्री शुरू की थी — बंद हो गई। बैंक ने ज़मीन, मकान, गाड़ियाँ सब ले लीं।
कर्ज़दाताओं की धमकियाँ मिलनी शुरू हुईं।
उसका चचेरा भाई संदीप बताता है,
“पांच साल से वो सबसे कटा हुआ था। किसी से नहीं मिला। मरता नहीं था, जी भी नहीं रहा था।”
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क्या यह सिर्फ आर्थिक त्रासदी थी? या एक मानसिक जाल?
पता चला कि कुछ घंटे पहले, पूरा परिवार पंचकूला में बागेश्वर धाम की हनुमंत कथा में गया था। लोग सोचते हैं वहां श्रद्धा मिलती है, उम्मीद मिलती है… लेकिन शायद प्रवीण को वहां से अंतिम शक्ति मिली — यह निर्णय लेने की।
कथा खत्म हुई, लेकिन जीवन की कथा वहीं थम गई।
कार में जो खाना था — वही ज़हर का माध्यम बना। बच्चों को क्या पता था कि यह उनका अंतिम भोजन होगा?
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अब सब खत्म था… सिर्फ एक चुप्पी बची थी… और एक सवाल:
> क्या कोई इस टूटते हुए इंसान की चीख़ सुन सकता था?
या हम सब उस खामोश कार की तरह हैं, जो सामने खड़ी है… लेकिन भीतर क्या है — जानने की फुर्सत किसे?
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कहानी पूरी नहीं हुई — समाज को अब भी उत्तर देना है।
पंचकूला की इस त्रासदी ने बता दिया कि कर्ज़ का बोझ सिर्फ पैसों का नहीं होता, वह इंसान के आत्मसम्मान, रिश्तों और आत्मा को भी निगल जाता है।
शायद ये कहानी किसी और प्रवीण को रुकने पर मजबूर कर दे…
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“कार की खामोशी” — वो चीख़ है जिसे वक़्त ने दबा दिया, लेकिन हमें सुननी चाहिए।