युद्ध/सीमा मामलों पर सरकार कोई हो हमेशा देश हित में फैसले लेती है। चाहें नेहरू हों या वाजपेयी। लेकिन ये मोदी थे जिन्होंने नेहरू-मनमोहन को टार्गेट किया जैसे वे पाक-चीन से लड़ना ना चाहते हों। कमजोर हों। जबकि सीमा विवादों की प्रतिक्रिया- समय, तैयारी, रिस्क देखकर की जाती है। चूँकि अंततः युद्ध सेना लड़ती है कोई नेता नहीं।
लेकिन मोदी ने ऐसी ग़लत प्रथा डाली जिसमें नेहरू से लेकर मनमोहन को ये कहकर बदनाम किया जैसे उनकी वजह से देश कमजोर हो और पाकिस्तान-चीन को जवाब ना दे रहा हो। और मोदी आ जाएँगे तो देश मजबूत हो जाएगा। जैसे युद्ध सेना नहीं मोदी लड़ेंगे।
जबकि एक प्रधानमंत्री ख़ुद में कुछ नहीं होता। देश की ताक़त ही प्रधानमंत्री की ताक़त होती है। देश की ताक़त ही नेहरू-मोदी की ताक़त है।
मोदी ने अपनी मुँहफट्टी की वजह से नेहरू-मनमोहन का नाम ले लेकर विदेश मामलो में जनता के हस्तक्षेप की एक ख़राब प्रथा को जन्म दिया। युध्द नीतियाँ जनदबाव में नहीं होनी चाहिए अपितु सेना और देश की क्षमता और रिस्क असेसमेंट को देखते हुए होनी चाहिए। और ये निर्णय का काम सेना और सरकार ख़ुद करनी चाहिए।
Modi ने पिछली सर्जिकल स्ट्राइक का सेहरा सेना के सर पर ना बांधकर ख़ुद के सर पर बाँध लिया। ख़ुद को हीरो बना लिया। इस कारण गुप्त मिशनों की जगह सर्जिकल स्ट्राइक जैसी फोटोजेनिक कार्रवाइयां इंपोर्टेंट हो गईं।
जबकि सेना के गुप्त मिशन और सरकार के डिप्लोमेटिक एफ़र्ट्स पाकिस्तान को अधिक नुक़सान पहुँचा सकते थे। लेकिन इनकी टॉप सीक्रेट मीटिंग भी 4K रेजोल्यूशन वाले कैमरों के आगे होती हैं। रॉ के गुप्त मिशनों में वो बात नहीं जो इन कैमरे वाले कामों में थी।
जबकि ये क्लियर हो चुका था कि इस बार दोनों न्यूक्लियर स्टेट युद्ध में जा सकते हैं। इधर मोदी को जनदबाव के कारण “फोटो” तो खिंचाने ही थे। क्योंकि देश में जिंगोइज्म फैलाने का काम इन्होंने ही किया है। इसलिए बिना असेसमेंट के कार्रवाई कर दी। और देश एक ऐसे युद्ध में चला गया जिसके लिए कोई भी तैयार नहीं था। ना हिंदुस्तान, ना पाकिस्तान, न बाहरी देश।
चूँकि सबको पता था कि दोनों न्यूक्लियर स्टेट हैं कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। अंततः दोनों आनन-फानन में सीजफ़ायर के लिए तैयार हो गए।
इससे दुनिया में मैसेज गया कि हमने युद्ध पहले शुरू किया और हम ही इतनी जल्दी सीजफ़ायर के लिए मान भी गए। वो भी बिना किसी शर्त के। इस कारण दुनिया में ये छवि बनी कि हम युद्ध में कूद तो गए लेकिन लड़ने में डर गए। या कमजोर पड़ गए। फिर युद्ध क्यों किया था?
ऊपर से पाकिस्तान लगातार सीजफ़ायर करता रहा। इससे हमारी छवि और अधिक डिफेंसिव हो गई। हम शिकायत कर रहे हैं कि पाकिस्तान सीजफ़ायर तोड़ रहा है। इधर हम इंडिया में कह रहे हैं कि पाकिस्तान सीजफ़ायर चाहता था।
अगर उसने सीजफायर मांगा तो वो तोड़ क्यों रहा है? और अगर तोड़ रहा है तो हम उसपर दोबारा बड़ी कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे?
सच यही है कि दोनों ही देश युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं और ना थे। दोनों देश इसके रिस्क को जानते हैं। लेकिन एक सच ये भी है कि इस आनन-फानन कार्रवाई ने हमारा नुक़सान करवाया है। हम चाहते तो सीक्रेट ऑपरेशंस से पाकिस्तान को दस गुना नुक़सान करा सकते थे। बलूचिस्तान की लड़ाइ को तेज करा सकते थे। मगर मोदी ने ख़ुद ऐसी जनता का निर्माण किया जिसे रोकना ना मोदी के बस की बात थी और ना किसी और की। ये सब मोदी के छवि निर्माण और जल्दबाजी के कारण हुआ।
अक्सर मैं जनरल जीडी बख्शी से सहमत नहीं होता। मगर कल उनके उतरे चेहरे और टीवी पर उनकी फ्रस्टेशन को देखके दिल उदास हुआ। सेना अपना जीवन देकर इस देश का स्वाभिमान जिंदा रखती है। सत्तर सालों में हमारी ये स्थिति नहीं आई। सेना को जो टास्क दिए गए सेना ने हमेशा पूरे किए। पाकिस्तान से तीन-तीन युद्ध जीते। उस भिखारी देश के सामने मोदी ने हो-हल्ला के चक्कर में अनर्थ करवा दिया।
इसलिए नीति-निर्माता समझदार, संयमी, विवेकवान होना चाहिए। जो सही समय का इंतजार करे, जनदबाव में ना आए। और अपनी छवि निर्माण से अधिक देश के असली भले की सोचे।
इतने शक्तिशाली देश, इतनी शौर्यवान आर्मी के बावजूद हम आज ये स्थिति देख रहे हैं तो सिर्फ़ एक आदमी के कारण।
वरना हम दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी में से एक हैं। हम भी न्यूक्लियर पॉवर स्टेट हैं। हमारे पास भी दुनिया की सबसे बड़ी आर्मी में से एक है। एक से एक न्यूक्लियर शिप, जहाज़, हथियार हैं। हम ये दिन देखना एकदम डिज़र्व नहीं करते।