Ghazal, Urdu Shayri-मुरस्सा ग़ज़ल, डॉ मुजफ्फर हुसैन नादिर, बिलारी
Ghazal, Urdu Shayri-मुरस्सा ग़ज़ल, डॉ मुजफ्फर हुसैन नादिर, बिलारी
नज़र में कद्र जो मां बाप की नहीं होती ।
तो कामयाब मेरी जिंदगी नहीं होती ॥
मेरी निगाहों में इंसानियत के जलवे हैं ।
मेरी किसी से कभी दुश्मनी नहीं होती ॥
खुशी मिली है तो सर को उठा के चलता है ।
समझ रहा है खुशी आरज़ी नहीं होती ॥
हज़ार रंज उठाता है ज़िंदगी के लिए ।
मगर ग़रीब को आसूदगी नहीं होती ॥
हज़ार बार तसव्वुर में तुमको देखा है ।
नज़र से दूर मगर तिशनगी नहीं होती ॥
दिल आईने की तरह टूटते हैं महफिल में |
यह और बात की आवाज़ भी नहीं होती ॥
कसम खुदा कि यह एहसान है मोहब्बत का ।
खुदी से अब तो मेरी बात भी नहीं होती ॥
दिलों में ज्ज़बा ए तामीर हो अगर ” नादिर” |
तो बात फिर कहीं तखरीब की नहीं होती ॥
डा० मुजफ्फर हुसैन नादिर
बिलारी मुरादाबाद