GHAZAL: ज़ीस्त का मौत से सामना रह गया एक बालिश्त का फ़ासला रह गया
ग़ज़ल
ज़ीस्त का मौत से सामना रह गया
एक बालिश्त का फ़ासला रह गया
वक़्ते-बे-रहम ने छीना सब कुछ मिरा
एक ले दे के बस हौसला रह गया
रात भर तेरी यादों की बारिश हुई
और करता मैं क्या भीगता रह गया
मज़हबी रंग उसने है पहना मगर
सोच का संकुचित दायरा रह गया
सूर्य निकला हुई हर तरफ़ रौशनी
ज़ोम तम का धरा का धरा रह गया
राम, यीशु, मुहम्मद तो नानक कोई
कितने फ़िरक़ों में देखो ख़ुदा रह गया
बात कहने तलक की भी मुहलत न दी
मैं था मुफ़लिस सो बस जा ब जा रह गया
नज़ीर नज़र