मुरस्सा ग़ज़ल नज़ीर नज़र साहिब, ग्वालियर
हमारी लौ लगी जिस आस्तां से
कोई ख़ाली नहीं लौटा वहां से
निगाहें उसकी वो सब कह गयीं हैं
जो सुनना चाहते थे हम ज़ुबाँ से
गवाही को तुम्हारे रतजगों की
सितारे चल दिये हैं आस्मां से
न जाने किसका दिल ज़ख़्मी करेगा
नज़र का तीर निकला है कमां से
सफ़र की मुश्किलों का लुत्फ़ लें चल
बिछड़ के अपने-अपने कारवां से
नतीजा है शजर को काटने का
बरसती आग देखो आसमां से
पढ़े-लिक्खो ने पूंजी फूंक डाली
हुआ बर्बाद गुलशन बाग़बां से
नज़ीर नज़र