मुरस्सा ग़ज़ल नज़ीर नज़र साहिब, ग्वालियर
पैकर-ए-वक़्त में ढलने नहीं देता है बदन
अब किसी शय प मचलने नहीं देता है बदन
ख़्वाब की आंच प इस तरह सुलगता शब भर
अब तो करवट भी बदलने नहीं देता है बदन।।
फेर देता है मिरे अक़्लो-ख़िरद कुछ ऐसे
चाल कैसी भी तो चलने नहीं देता है बदन।।
थक के अब चूर हुआ जाता है इतना यारो
गिरते-पड़ते भी संभलने नहीं देता है बदन
बात तो खूब करे है कि बदलना होगा
रस्मे-दुनिया भी बदलने नहीं देता है बदन
जी में आता है तो करता है वो मनमानी भी
अपने आगे मिरी चलने नहीं देता है बदन
अय ‘नज़र’ वस्ल का अब कुछ तो वसीला होगा
“रूह को रूह से मिलने नहीं देता है बदन”
नज़ीर नज़र